नई दिल्ली
पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आरएफ नरीमन ने बाबरी विवाद से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर अपनी असहमति जताते हुए कहा कि इन फैसलों में सेकुलरिज्म के सिद्धांत के तहत न्याय नहीं दिया गया। उन्होंने 2019 के ऐतिहासिक फैसले की भी आलोचना की, जिसमें विवादित स्थल पर राम मंदिर निर्माण की अनुमति दी गई थी। जस्टिस नरीमन ने इसे ‘न्याय का बड़ा मजाक’ करार दिया और कहा कि इन फैसलों में सेकुलरिज्म को उचित स्थान नहीं दिया गया। जस्टिस नरीमन ने यह टिप्पणी "सेकुलरिज्म और भारतीय संविधान" विषय पर आयोजित प्रथम जस्टिस एएम अहमदी स्मृति व्याख्यान में की। उन्होंने बताया कि 'खुद सुप्रीम कोर्ट ने ये बात मानी थी कि बाबरी मस्जिद के नीचे कोई राम मंदिर नहीं था।' उन्होंने इस मामले से जुड़े पहले के फैसलों पर खुलकर बात की।
लिब्रहान आयोग और राष्ट्रपति संदर्भ पर टिप्पणी
रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस नरीमन ने कहा, ""सबसे पहले सरकार ने लिब्रहान आयोग नियुक्त किया, जो निश्चित रूप से 17 वर्षों तक सोया रहा और फिर 2009 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। दूसरा, इसने अयोध्या अधिग्रहण क्षेत्र अधिनियम और साथ ही सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रपति संदर्भ दिया, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि मस्जिद के नीचे कोई हिंदू मंदिर था या नहीं।" उन्होंने इसे "भ्रामक और शरारतपूर्ण प्रयास" बताया।
1994 का इस्माइल फारूकी मामला
उन्होंने इस्माइल फारूकी बनाम भारत सरकार (1994) के फैसले का जिक्र किया, जिसमें अयोध्या क्षेत्र अधिग्रहण अधिनियम, 1993 की वैधता और राष्ट्रपति संदर्भ पर सुनवाई हुई थी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 67 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को वैध ठहराया, लेकिन न्यायमूर्ति अहमदी ने असहमति जताते हुए कहा कि यह कानून सेकुलरिज्म के खिलाफ है।
2019 का राम जन्मभूमि फैसला
जस्टिस नरीमन ने राम जन्मभूमि मामले (2019) में अंतिम फैसले का भी जिक्र किया। इसमें तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि अयोध्या में 2.77 एकड़ की पूरी विवादित भूमि राम मंदिर के निर्माण के लिए सौंप दी जानी चाहिए। साथ ही, सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद निर्माण के लिए 5 एकड़ वैकल्पिक भूमि देने का आदेश दिया गया। हालांकि, कोर्ट ने यह भी माना कि 1992 में मस्जिद का विध्वंस कानून का गंभीर उल्लंघन था। जस्टिस नरीमन ने इस फैसले की आलोचना करते हुए कहा, "कोर्ट ने माना कि 1857 से 1949 तक मुसलमान वहां नमाज पढ़ते थे। लेकिन यह कहा गया कि वे इस स्थल पर 'एकमात्र कब्जे' का दावा नहीं कर सकते भले ही हिंदू पक्ष ने कई बार कानून के विपरीत कार्य किए हों। इसके बावजूद कोर्ट ने पूरा स्थल हिंदू पक्ष को सौंप दिया। यह न्याय का बड़ा मजाक है।"
जस्टिस नरिमन ने इस फैसले को लेकर कहा, "मस्जिद का निर्माण 1528 में हुआ था और यह तब से एक मस्जिद के रूप में अस्तित्व में थी। लेकिन 1853 में पहली बार इसमें विवाद हुआ। जैसे ही ब्रिटिश साम्राज्य ने 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी से सत्ता ली, एक दीवार को अंदर और बाहर के आंगन के बीच खड़ा किया गया। इस दीवार के बाद, अंदर के आंगन में मुस्लिम नमाज पढ़ते थे और बाहर के आंगन में हिंदू। यह तथ्य दर्ज है कि 1857 से लेकर 1949 तक दोनों पक्षों की प्रार्थनाएं होती रही थीं। लेकिन 1949 में कुछ लोग मस्जिद में घुसकर मूर्तियां स्थापित कर गए, जिसके बाद मुस्लिमों की प्रार्थनाएं रुक गईं।"
एएसआई रिपोर्ट और ऐतिहासिक संदर्भ
उन्होंने 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा तैयार रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा कि इस रिपोर्ट में विभिन्न धर्मों से संबंधित पुरावशेष पाए गए, जिनमें शैव, बौद्ध और जैन संस्कृतियों के चिन्ह भी थे। जस्टिस नरिमन ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया था कि "कोई राम मंदिर बाबरी मस्जिद के नीचे नहीं था।" इसके बावजूद कोर्ट ने यह टिप्पणी की कि मुस्लिमों के पास 1857 से 1949 तक के बीच विवादित स्थल पर "विशेष अधिकार" नहीं था, क्योंकि यह स्थान विवादित था। उन्होंने कहा, "कोर्ट ने माना कि इस स्थान पर हिंदू पक्ष ने कानून का उल्लंघन किया और इसलिए इस मामले में कोई एकतरफा दावा नहीं किया जा सकता था।"
सेकुलरिज्म की अनदेखी पर नाराजगी
जस्टिस नरीमन ने जोर देकर कहा, "हर बार हिंदू पक्ष ने कानून का उल्लंघन किया, लेकिन इसका परिणाम मस्जिद के पुनर्निर्माण के बजाय केवल वैकल्पिक भूमि देने के रूप में सामने आया। यह सेकुलरिज्म के साथ न्याय करने में असफलता है।" जस्टिस नरिमन ने इस बात पर जोर दिया कि हर बार जब कोई कानून का उल्लंघन हुआ, तो वह हिंदू पक्ष द्वारा हुआ था। उन्होंने सवाल उठाया कि "क्या न्याय का सही पालन किया गया था? इस फैसले में किसी तरह से सेकुलरिज्म को सम्मान नहीं दिया गया, जो कि मेरी व्यक्तिगत राय में न्याय का एक बड़ा अपमान है।" उन्होंने यह भी कहा कि, "आखिरकार, जो 'सुधार' किया गया वह यह था कि मस्जिद को पुनर्निर्मित करने के बजाय सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए कुछ और भूमि दी गई।" उन्होंने बाबरी विध्वंस साजिश मामले का भी जिक्र किया, जिसमें सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया। इस पर उन्होंने कहा, "जिन न्यायाधीश ने यह फैसला दिया, उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद उत्तर प्रदेश के उप-लोकायुक्त के रूप में नियुक्त किया गया। यह हमारे देश की स्थिति को दर्शाता है।"